Wednesday 14 September 2011

बोल कि लब आजाद हैं तेरे.....


आये दिन समाचार पत्रों और न्यूज चैनलों पर महिलाओं पर हो रहे अत्याचार और उनके शोषण से संबंधित खबरें प्रसारित होती रहती हैं। समाज में महिलाओं की स्थिति सुदृढ़ करने के लिए विभिन्न संगठनों की भी स्थापना की गयी है और कई कार्यक्रम भी चलाये जा रहे हैं। इन सबों का कहीं न कहीं प्रभाव अवश्य पड़ा है और उससे कहीं ज्यादा ढिंढोरा पीटा जाता है। खैर कमोबेश उनकी स्थिती में सुधार तो हुआ है।
कुछ समय पहले तक ऐसा माना जाता था कि ज्यादातर महिलाओं का शोषण निम्न वर्ग के परिवारों में ही होता था। संभ्रांत परिवार की महिलाओं की स्थिति अपेक्षाकृत अच्छी मानी जाती थी। इसका मूल कारण शिक्षा को माना जाता था। परंतु इन दिनों मैं ऐसी परिस्थितियों से गुजरा हूँ जिसने मेरी इस सोच को पूरी तरह बदल डाला है।
मेरे पीजी की एक महिला मित्र की शादी दो वर्ष पूर्व दिल्ली के एक संपन्न परिवार में हुई। शादी के वक्त मेरी दोस्त भी काफी खुश थी, परंतु जैसे-जैसे समय बीतता गया उसके चेहरे से हंसी मानो गायब होती चली गयी। आये दिन उसके ससुराल वाले अत्याचार करते रहे। तरह-तरह के ताने सुनती रही। इस दौर के दैरान कई बार उसका जी उब गया लेकिन अपनी नियती मान वो अब तक सबकुछ चुपचाप सहती रही।
जब अन्ना देश से भ्रष्टाचार मिटाने के लिए अनशन कर रहे थे तो उसी समय उसने भी अपने ऊपर हो रहे अत्याचार के विरूद्ध अनशन की ठानी। 6 दिनों तक अनशन करने के बाद उसे भी सफलता मिली और आज वो अपने मायके आ गयी है। वो मानसिक और शारीरिक रूप से इतनी प्रताडित हो चुकी है कि वापस उस घर में लौटने की सोच मात्र से ही सिहर उठती है। उसके साथ जो भी व्यवहार किया गया उसका मूल कारण दहेज था।
वहीं दूसरी ओर भागलपुर से लौटने के दौरान मैं निम्न तबके की कुछ महिलाओं से रूबरू हुआ। ग्रामीण और पिछड़े परिवेश से आने वाली ये महिलाएं अपने घर से लगभग 20-25 किलोमीटर दूर मवेशियों को खिलाने के लिए घास काटने जाती हैं। 30-40 किलो के वनज वाले उन गट्ठरों को खुद ही घर तक लाती भी हैं। और इन सब कामों के लिये यातायात के रूप में भारतीय रेलवे की धक्कम-पेल वाली लोकल ट्रेन। इस दौरान वो इतनी सशक्त दिखतीं हैं कि किसी की जुर्रत भी न हो कि उन्हें सवारी डिब्बों में, जिसमें लोग बामुुश्किल खड़े हो पाते हों वहां उन्हें घास के गट्ठरों को लादने से रोक दे या कुछ कह दे। महिलाओं की इस दृढ़ता को देख बरबस मुंह से निकल गया, महिलाएं अब वाकई सशक्त हो रहीं हैं। खरीदारी के वक्त दुकानों पर मोल भाव करना हो या अपने हक के लिए लड़ना हो, निम्न तबके की महिलाएं हर जगह अपनी दृढ़ता और आत्म विष्वास से भरी दिखती हंै।
ऐसा होना भी लाजमी है। आखिर कब तक वे संस्कार और संस्कृति को पोषित करती रहेंगी ? धीरे-धीरे अब वो सारी पुरानी वर्जनाआंे को तोड़ सशक्त बन कर उभर रही हैं। लेकिन ये आत्मविश्वास और साहस केवल निम्न केवल निम्न वर्ग अथवा उच्च वर्ग की महिलाओं में ही क्यों ? मध्यम वर्ग से आने वाली महिलाओं में ये साहस और विद्रोह की भावना कब आयेगी? कब मध्यम वर्ग की महिलाएं भी अपनी शोषित छवि को त्याग कर अपनी एक अलग पहचान बनयेंगी?