Friday 21 October 2011

आस्था का बिगड़ता स्वरुप

किताबों में मैंने पढ़ा था, धर्म का अर्थ है आचरण। हम जैसा आचरण करते हैं वही हमारा धर्म होता है। लेकिन आजकल अपने आस पास की स्थिति देखकर ऐसा लगने लगा है कि धर्म की पूरी अवधारणा ही बदल चुकी है। आज धर्म केवल कुछ दिनों के लिए संयमित आचरण तक ही सीमित रह गया है।  इस संयमित आचरण को भी हम अपने सुविधानुसार संशोधित करते रहते हैं।
हिन्दुओं में वैसे तो सालों भर कोई न कोई धार्मिक क्रियाकलाप होता रहता है लेकिन सावन महीने के बाद से इसमें अचानक से इजाफा हो जाता है। हर सप्ताह कोई न कोई पर्व या धार्मिक अनुष्ठान होता है। और इसी के साथ शुरू हो जाता है संयमित आचरण। बहुत लोग सावन के महीने में मांसाहार का त्याग कर देते हैं। और पूरी तल्लीनता से भगवान शंकर की आराधना में जुट जाते हैं। हालांकि इस महीने में भी मादक द्रव्यों का सेवन करने वाले मादक द्रव्यों का सेवन करते ही हैं और यह तर्क देते हैं कि ये भगवान शंकर का प्रसाद है। संयमित आचरण दशहरा और छठ के दिनों में भी देखने को मिलता है। जो लोग पूजा पाठ नहीं करते हैं वो भी सादा भोजन ही करते हैं। मांसाहार तथा मादक द्रव्यों का सेवन पूरी तरह प्रतिबंधित हो जाता है। एक बार फिर से संयमित जीवन शुरू। इस बार यह संयमन केवल कुछ दिनों का ही होता है। लेकिन जैसे ही संयमित आचरण में रहने की अवधि पूरी होती है, फिर से अपने पूर्ववत आचरण में जुट जाते हैं।
विजयादशमी के दिन जब मैंने बुचर शॅपस पर भीड देखी तो अनायास ही मुंह से निकल गया, ‘‘बहुत सह लिए दस दिन’’। दुकानों के आगे मांसाहारियों की भीड़ लगी हुई थी। कोई आज के दिन इस मौके को नहीं खोना चाहता था। 9 दिनों तक बहुत सहन कर लिया, अब सहा नहीं जाता। आज तो टूट पड़ेगे। इस दृश्य को देखकर ऐसा लगा कि क्या हम केवल दिखावे के लिए ही धार्मिक अनुष्ठान करते हैं। मन से कभी भी उन नियमों का पालन नहीं करते जो हमारे सरल व सादा जीवन जीने के लिए बनाये गये हैं।
धार्मिक क्रियाकलापों को आज सभी अपने अपने ढंग से परिवर्तित कर रहे हैं। पूजा कराने आये पंडित जी भी किसी वस्तु के अभाव में सहज ही मंत्र पढ़ देते ........ अभावे अक्षतम् समर्पयामी। पंडित जी हर परिस्थिति में खुद और देवाताओं को भी ढाल लेते हैं मानो भगवान इनके कहे अनुसार ही चलते हैं। लोगों की इनके प्रति इतनी आस्था कि पंडित जी ने कहा है नहीं कैसे करेंगें। नौकरी न लग रही हो, षादी न हो रही हो, पारिवारिक कलह हो, वगैरह-वगैरह, हर समस्या का समाधान पंडित जी के मंत्रों और बताये उपायों में होता है। इन दिनों खबरिया चैनलों और पत्र-पत्रिकाओं को भी लोगों में बढ़ रही दिखावटी आस्था की गंध लग गयी है। जिस कारण जहां लगभग हर टीवी चैनल हर रोज एक निश्चित समय पंडितों के नाम करने लगे हैं। वहीं पत्र-पत्रिकाओं में भी एक निश्चित स्तंभ पंडित जी के लिए होता है। आज का पढ़ा लिखा नवयुवक वर्ग भी आंखें मूंदे इस ओर बढ़े जा रहा है। रंग बिरंगे पत्थरों वाले अंगूठी पहनना तो अब चलन सा बन गया है। इन सबों में धर्म कहां पीछे छूटता जा रहा है इसकी सुध लेने वाला कोई नहीं। कहीं न कहीं आज धर्म फिर से अंधविश्वास का रूप लेता जा रहा है। हम बिना सोचे समझे ऐसे धार्मिक क्रियाकलापों को किये जा रहे हैं जो अर्थहीन हैं। अब पंडित जी ने कह दिया कि किसी खास रंग के कपड़े पहनो, समय बदलेगा और हम लग जाते हैं उस उटपटांग काम को करने में।
हिन्दू धर्म को बहुत हद तक वैज्ञानिक सिद्धांतों पर आधारित कहा गया है। और कहीं न कहीं हर क्रियाकलाप वैज्ञानिकता की छांव में रहता है। पर उसमें अपने अनुरूप संसोधन कर हम उसे धार्मिक अंधविश्वास में बदल रहे हैं। ऐसे में धर्म के लिए भी यह जरूरी है कि एक बार फिर से बौद्धिक वर्ग आगे आये और अंधविश्वास में बदल रहे धर्म की रक्षा करे। आधुनिकता और धर्म के बीच सामंजस्य स्थापित कर फिर से धर्म की श्रेष्ठता को बाह्य आडंबरों से मुक्त कर सके।

Saturday 1 October 2011

कुंध होती मानवीय संवेदनायें

डॉक्टर को धरती का भगवान माना जाता है। लोगों की जो अपेक्षाएं भगवान से होती हैं उन अपेक्षाओं को लगभग पूरा करने का काम डॉक्टर ही करते हैं। लेकिन व्यावसायिकता के इस दौर में डॉक्टरी का पेशा भी पूरी तरह व्यावसायिक हो चुका है। आज शायद ही कोई ऐसा डॉक्टर हो जिसे मरीजों की फिक्र हो। हालांकि ज्यादातर डॉक्टरों का मरीजों के प्रति व्यवहार अभी भी सहानुभूतिपूर्ण ही होता है। लेकिन ये सहानुभूति तभी तक होती है जबतक मरीज या उसके परिजन डॉक्टर साहब की छत्रछाया केबिन में हों।
हम विकास के दौर में जैसे जैसे आगे बढ़ रहे हैं नई नई बीमारियों से भी हमारा पाला पड़ता जा रहा है। कैंसर एड़स हेपेटाइटिस जैसी बीमारियां तो अब आम हो चुकी हैं। नई बीमारियांे के इस दौर में न्यूरो सर्जनों की भी खूब चल निकली है। छः महीने के बच्चे से लेकर उम्र के आखिरी पड़ाव में चल रहे वृद्ध भी इनके मरीजों की फेहरिस्त में शामिल होते हंै। ज्यादातर न्यूरो सर्जन तो ऐसे हैं जिनके यहां दो-दो, तीन-तीन दिन का सफर तय कर मरीज इलाज के लिए पहुंचते हैं। न्यूरो सर्जनों के यहां बढ़ रही भीड़ और व्यस्तता के कारण मरीजों को दिखाने की बारी 30-45 दिनों पर आती है। हद तो तब हो जाती है जब काफी इंतजार के बाद मरीज को डॉक्टर साहब से मिलने की बारी आती है और डॉक्टर साहब अपने किसी निजी काम से मरीजों को समय नहीं दे पाते। उस समय मरीजों को फिर से नई तारीख दी जाती है जो दुबारा 30-35 दिनों का इंतजार कराती है। ऐसे में मरीजों का क्या होगा, इसकी जरा सी भी परवाह शायद डॉक्टरों को नहीं रहती। उन्हें तो बस अपनी बेतहाशा कमाई से मतलब होता है। डॉक्टर मोटी कमाई की बदौलत अपनी जमा पूंजी बढ़ाने में लगे हैं वहीं दूसरी ओर मरीज अपने खून पसीने की कमाई को भी पानी की तरह बहा रहे है।
ऐसे सुविख्यात डॉक्टरांे के यहां डॉक्टरों से ज्यादा उनके कंपाउंडरों की तूती बोलती है। डॉक्टर साहब शायद समय दे भी दें पर ये कंपाउंडर साहब नहीं चाहेंगे मजाल क्या है कि आप उनसे मिल लेंगे। ऐसे में मरीजों का धरती के इस भगवान पर से भरोसा उठने लगता है। मरीज या तो दर दर की ठोकर खाने को विवश हो जाते हैं या फिर उनकी बीमारी उन्हें उस भगवान के पास पहुंचा देती है जिसका दूत उन्हें अपनी शरण में नहीं ले रहा होता है।
कमोबेश ऐसी स्थिति हर डॉक्टर के यहां देखने को मिलती है। और ये स्थिति देखकर बरबस ही यह भाव जाते हैं कि हम किस ओर जा रहे है। पहले जिन्हें हम धरती के भगवान का दर्जा देते थे उन्हीं से अब सबसे ज्यादा बैर रखने लगे हैं। आये दिन मरीज के परिजनों और डॉक्टरों के बीच हाथापाई की घटनाएं सामने आने लगी है। जिससे डॉक्टर और मरीजों के बीच के संबंध दिन पर दिन बिगडते चले जा रहे हैं। व्यवसायिकता और धनलोलुपता की इस अंधी दौड़ ने मानवीय संवेदनाओं के उपर मोटी परत चढा दी है। निसंदेह यह मानवता के हित में नहीं है।