Saturday 1 October 2011

कुंध होती मानवीय संवेदनायें

डॉक्टर को धरती का भगवान माना जाता है। लोगों की जो अपेक्षाएं भगवान से होती हैं उन अपेक्षाओं को लगभग पूरा करने का काम डॉक्टर ही करते हैं। लेकिन व्यावसायिकता के इस दौर में डॉक्टरी का पेशा भी पूरी तरह व्यावसायिक हो चुका है। आज शायद ही कोई ऐसा डॉक्टर हो जिसे मरीजों की फिक्र हो। हालांकि ज्यादातर डॉक्टरों का मरीजों के प्रति व्यवहार अभी भी सहानुभूतिपूर्ण ही होता है। लेकिन ये सहानुभूति तभी तक होती है जबतक मरीज या उसके परिजन डॉक्टर साहब की छत्रछाया केबिन में हों।
हम विकास के दौर में जैसे जैसे आगे बढ़ रहे हैं नई नई बीमारियों से भी हमारा पाला पड़ता जा रहा है। कैंसर एड़स हेपेटाइटिस जैसी बीमारियां तो अब आम हो चुकी हैं। नई बीमारियांे के इस दौर में न्यूरो सर्जनों की भी खूब चल निकली है। छः महीने के बच्चे से लेकर उम्र के आखिरी पड़ाव में चल रहे वृद्ध भी इनके मरीजों की फेहरिस्त में शामिल होते हंै। ज्यादातर न्यूरो सर्जन तो ऐसे हैं जिनके यहां दो-दो, तीन-तीन दिन का सफर तय कर मरीज इलाज के लिए पहुंचते हैं। न्यूरो सर्जनों के यहां बढ़ रही भीड़ और व्यस्तता के कारण मरीजों को दिखाने की बारी 30-45 दिनों पर आती है। हद तो तब हो जाती है जब काफी इंतजार के बाद मरीज को डॉक्टर साहब से मिलने की बारी आती है और डॉक्टर साहब अपने किसी निजी काम से मरीजों को समय नहीं दे पाते। उस समय मरीजों को फिर से नई तारीख दी जाती है जो दुबारा 30-35 दिनों का इंतजार कराती है। ऐसे में मरीजों का क्या होगा, इसकी जरा सी भी परवाह शायद डॉक्टरों को नहीं रहती। उन्हें तो बस अपनी बेतहाशा कमाई से मतलब होता है। डॉक्टर मोटी कमाई की बदौलत अपनी जमा पूंजी बढ़ाने में लगे हैं वहीं दूसरी ओर मरीज अपने खून पसीने की कमाई को भी पानी की तरह बहा रहे है।
ऐसे सुविख्यात डॉक्टरांे के यहां डॉक्टरों से ज्यादा उनके कंपाउंडरों की तूती बोलती है। डॉक्टर साहब शायद समय दे भी दें पर ये कंपाउंडर साहब नहीं चाहेंगे मजाल क्या है कि आप उनसे मिल लेंगे। ऐसे में मरीजों का धरती के इस भगवान पर से भरोसा उठने लगता है। मरीज या तो दर दर की ठोकर खाने को विवश हो जाते हैं या फिर उनकी बीमारी उन्हें उस भगवान के पास पहुंचा देती है जिसका दूत उन्हें अपनी शरण में नहीं ले रहा होता है।
कमोबेश ऐसी स्थिति हर डॉक्टर के यहां देखने को मिलती है। और ये स्थिति देखकर बरबस ही यह भाव जाते हैं कि हम किस ओर जा रहे है। पहले जिन्हें हम धरती के भगवान का दर्जा देते थे उन्हीं से अब सबसे ज्यादा बैर रखने लगे हैं। आये दिन मरीज के परिजनों और डॉक्टरों के बीच हाथापाई की घटनाएं सामने आने लगी है। जिससे डॉक्टर और मरीजों के बीच के संबंध दिन पर दिन बिगडते चले जा रहे हैं। व्यवसायिकता और धनलोलुपता की इस अंधी दौड़ ने मानवीय संवेदनाओं के उपर मोटी परत चढा दी है। निसंदेह यह मानवता के हित में नहीं है।

2 comments:

  1. मानवीय संवेदनाओं से जुड़ा सुन्दर आलेख. लिखते रहिये. मेरी शुभकामनायें!

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  2. वास्तविकता से रु-ब-रु कराता ये आलेख शायद इन डौक्टरों की तन्द्रा भंग कर सके. सुंदर प्रयास.

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